"गुप्त रत्न " " भावनाओं के समंदर मैं "

कभी मनायी ,ईद मैंने और तूने साथ दिवाली थी ,
बांटी मैंने सेवई,तूने भी आँगन मेरे डाली रंगोली थी ।

दियें जलाएं है, तूने,और रातें वो सजा ली थी ,
मैंने भी संग सजाई तेरे ,इफ्तारी की थाली थी ।

जलाए तूने पटाखे,और रात मनायी दिवाली थी ,
मैंने भी कितनी दफा,रमजान की सेहरी साथ तेरे खा लीथी ।

मैं भी हूँ ,और तू भी है ,ईद आयी और आएगी दिवाली भी  ,
पर अब दोनों के त्यौहार है फीके,दोनों के मन खाली है /

कभी मनाई,ईद मैंने और तूने साथ दिवाली थी /
बांटी मैं सवाई..................................

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