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गुप्तरत्न : हर बच्चे की कहानी गुप्त रत्न की ज़ुबानी

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"गुप्तरत्न " "भावनाओं के समंदर मैं "

कैसे आस लगाएं उत्तरदायित्व की, हम बच्चे से ,

"गुप्तरत्न " "भावनाओं के समंदर मैं " कैसे आस लगाएं उत्तरदायित्व की, हम बच्चे से , दो काम उन्हें जो कर पाएं ,वो अच्छे से , दो कुछ पेड़ लगाने उनको तुम बाग़ में , जिनको वो बढ़ता देखें,ऋतू आये जब फाग में , कुछ है संगीत विशारद , तो कुछ है अच्छे खेल में, दो सजाने राग उन्हें तुम,दो अवसर, मत बांधो नियमो की जेल में, कुछ है बड़े तो कुछ छोटे,कुछ नटखट तो कुछ संजीदा, दे उनके काम उन्हें तुम कुछ उनके पसंदीदा, कुछ सबक देती है, हम सबको जीवन की पाठशाला, जिसको हम सबने जीवन में है ढाला, वही सबक दो बच्चो को व्यवहार में , जिनको करें वो पूरा, और लाएं भी विचार में, कभी बना दो उनको अध्यापक, कभी सिखाएं वो बच्चो को, बनने दो तुम नेता उनको ,कम मत समझो मन के सच्चों को, बीज वो दो तुम संस्कारों का कोमल से इस मन में, बनेगा पेड़ कल घना ,जो पौधा था बचपन में ll

गुप्तरत्न नहीं मिटेगी मृगतृष्णा कस्तूरी मन के अन्दर है .........तुफानो से घिरा समन्दर है

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"गुप्तरत्न " "भावनाओं के समंदर मैं "
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"गुप्तरत्न " "भावनाओं के समंदर मैं "

शिक्षा में सादगी और विश्वास -गुप्तरत्न

"गुप्तरत्न " "भावनाओं के समंदर मैं " शिक्षा में सादगी और विश्वास जब तक न होगा  व्यहवहार आपका सादा , जब तक न पहुंचोगे ह्रदय द्वार तक ,न खुलेगा विद्यार्थी के मन का दरवाज़ा ॥ होगी न शिक्षा पूरी ,न होगा दायित्व हमारा पूरा , रह जाएगी शंकाएं ,रहेगा विश्वास हम पे आधा ॥ बहने दो पानी को खुलकर, न बांधो इसका, बाल -ह्रदय की उन्मुक्त भावनाएं बहने दो न बनो इनमे बाधा॥ तुम बनो गुरु ऐसे जिसका,ह्रदय सरल हो और बाल मित्र हो , थोड़ा डाँटो कभी उनको ,कभी खेलो उनके संग भी ज्यादा ॥ कह दो सारी बातें खेल खेल में ,दे दो मन्त्र सारे पाठों के , कभी बनो तुम कृष्णा -सुदामा ,कभी सुनाओ पुराने आदर्शो की गाथा ॥

गुप्तरत्न : मुझे दोस्ती से डर लगता है,मुझे मुहब्बत से डर लगता ...

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गुप्तरत्न : मुझे दोस्ती से डर लगता है,मुझे मुहब्बत से डर लगता ... :  मु झे दोस्ती से डर लगता है, मुझे मुहब्बत से डर लगता है , डरती हूँ जुड़ने से लोगो से , क्यूंकि मुझे अलग होने से डर लगता है ॥             दीखते नहीं है चेहरे लोगो के ठीक से ,               इसलिए मुझे अंधेरो से डर लगता है                आँखे चौंधिया जाती है, इसलिए               मुझे तेज उजालों से डर लगता है ॥ मुददते हुई ठिकाना छोड़े हुए , की मुझको अब बसने से डर लगता है , आवारगी का आलम भी रहा गज़ब, की राहों पर ही घर लगता है, की मुझे अब घर से डर लगता है,॥                                            मुझे जुड़ने से डर लगता है ................... झुका देती है हर किसी के आगे, की मुझे ऐसी गरीबी से डर लगता है, हर शह खरीदने की चाहत करें की, मुझे ऐसी अमीरी से डर लगता है ॥                                         बदल जाते है मायने बातों के,                                            ऐसे झूठ से डर लगता है,