गुप्तरत्न कौन पैर रखते थके,? और कौन दूर तक चल सके ,

#गुप्तरत्न ख़ामोशी की गहराई में 
देखना है तुझको, अब गर्मियां तेरे हाथों की ,
जिससे बुझी मुझमे आग ,फिर वो जल सके ,

दूरियों में बन गया ,जो पत्थर अब,
तेरी नजदीकियों से दिल मेरा फिर वो पिघल सके ,

इम्तिहान की घडी है ये सफ़र ,अब देखते है ,
कौन पैर रखते थके, और कौन दूर तक चल सके ,

अब तो हो गए, कुछ तो समझदार हम भी ,
लडखडाते है उतना ही ,जितना खुद संभल सके ,

अब तो जाल है ,ये रिश्तों के नाम पे ,
देखते है ,फसें  इसमें कौन ,और कौन बचके निकल सके ,

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Nahi mitegi mrigtrishna kasturi man ke andar hai

Guptratn: पिता