अच्छा लगने लगा है !!

गुप्त रत्न,
भावनायों के समन्दर मैं 

अच्छा लगने लगा है !!

मुझे फिर क्या लगने लगा है,

आपके ख्यालों मैं रहना,अच्छा लगने लगा है !!

हीं चाहती फिर वही आग,

पर क्या करूँ,यूँ जलना अच्छा लगने लगा है !!

जो मैं न बोलूं,और आप समझे,

वो हर बात लिखना, अब अच्छा लगने लगा है !!

हो रही है बात,न मुलाकात,

बस यूँ इनका,इंतज़ार करना अच्छा लगने लगा है !!

सब्र है,न जोर धडकनों पर मेरा,

बेकरार रहना यूँ,अब अच्छा लगने लगा है !!

ख्यालों और ख्वावो मैं ही सही ,

आपके सीने से लगना, अच्छा लगने लगा है !!

डरती हूँ,आप पढ़ न ले निगाहों मैं,

आपके सामने बैठकर,आपको पढना अच्छा लगने लगा है !!

कुछ नही सोच पाते,आपको सोचने के बाद,

फिर भी आपको, सोचते रहना अच्छा लगने लगा है !!

ताज भी न मंज़ूर था शर्तो पर,"रत्न" को ,

कह दूँ,क़ुबूल आपकी हर शर्त,क्यूँ अच्छा लगने लगा है !!

गुप्त रत्न 


टिप्पणियाँ

Nahi mitegi mrigtrishna kasturi man ke andar hai

Guptratn: पिता