ये मान हम दिशा के दो छोर है ,
एक पूरब तो एक पश्चिम की ओर है ,
अलग अलग है दोनों का मतलब ,
एक संध्या तो एक भोर है ,
माना पूरब है उगता सूरज ,पर
राह पश्चिम देती, उसको इस ओर है
माना दोनों है बिलकुल अलग अलग ,
पर दोनों को बांधे,कोई तो डोर है ,
माना मिलना मुश्किल है ,दोनों का
तू कही का राही, मेरी मंज़िल कुछ और है
मत सुन /कौन तुझे क्या कहता है ,
ये तो दुनिया वालों का शोर है ,
तुम चाहो हो छोर मिलाना ,
बात काबिल- ए-गौर है ,
पर समझो तुम बात हमारी ,
मैं पूरब ,तू  पश्चिम  का छोर है ..............
गुप्त रत्न "ग़ज़ल"


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