क्या करे की अब कुछ समझ आता नहीं , छाया है कोहरा घना ,की कुछ नज़र आता नहीं , चले थे कहाँ ,और पहुंचे है कहाँ ,पर आकर हम, दुरी है बराबर ,लौंटेंगे कैसे ,? आगे चला जा ता नहीं ,..... क्या करे की अब कुछ समझ .... हम करते रहे दिल की और, वह सुनते रहे दिमाग की, की उनने जो किया वह हमसे किया जाता नहीं , हमारी चाहत है अलग और, अलग उनकी प्यास है , की मुहब्बत मैं ,हमसे अब ये समझौता किया जाता नहीं, क्या करे की अब .......... जलाने के पहले सोचा न था ,की तपन आएगी हम तक भी, आगाज़ तो कर दिया हमने, अज़ाम अब दिया जाता नहीं, हर ज़ख़्म लिया दिल पर खुद अपने हाथों से, की अब इलज़ाम किसी पर दिया जाता नहीं , क्या करे की ........ चाहत है क्या? क्या बताएं हम ए ' रत्न , की हमसे अब आगे कुछ कहा जाता नहीं, क्या करे की अब कुछ समझ आता नहीं............. गुप्त रत्न
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