"गुप्त रत्न " " भावनाओं के समंदर मैं " ज़रूरी है खुद पर गुरूर होना इतना भी क्या किसी नशे मैं चूर होना , की हकिकत से पड़े दूर होना // पर तड़प ही न दिखे किसी की ,ज़रा भी इस कदर भी क्या मगरूर होना// की हकीकत से पड़े दूर होना......................................... थामा है कैसे धडकनों को,आपके सामने बैठकर, दिल पूछ बैठा,कियूँ भी क्या "रत्न"मजबूर होना / / की हकीक़त से पड़े दूर होना.................. इतनी आदत अच्छी नहीं परिस्तश की,"रत्न", सबक आपका ही है ,ज़रूरी है खुद पर थोडा गुरूर होना // कम सबब नही ,दीवानों की बेखुदी का हम भी , शुरू हो चुका आप पर भी मेरा अब सुरूर होना // शख्सियत ही खोने लगी आपमे खोकर,, गुमां हुआ अच्छा नही किसी मैं अपना वजूद खोना // रखना पड़ता है ,अपने भी रुतबे का ख्याल, नामंज़ूर है, सुकून-ए-दिल मैं बेआबरू होना// लाज़मी है , इस हकीक़त से रूबरू होना , अच्छा नहीं किसी के नशे मैं इस क़दर चूर होना................................... -------------------------------- परिस्तिश -पूजा करना ,किसी को बहुत मानना सुरूर -नशा मगरूर ...