"गुप्त रत्न " " भावनाओं के समंदर मैं "


ज़रूरी है खुद पर गुरूर होना

इतना भी क्या किसी नशे मैं चूर होना ,
की हकिकत से पड़े दूर होना //

पर तड़प ही न दिखे किसी की ,ज़रा भी 
इस  कदर भी क्या मगरूर होना//

की हकीकत से पड़े दूर होना.........................................

थामा है कैसे धडकनों को,आपके सामने बैठकर,
दिल पूछ बैठा,कियूँ भी क्या "रत्न"मजबूर होना //

की हकीक़त से पड़े दूर होना..................

इतनी आदत अच्छी नहीं परिस्तश की,"रत्न",
सबक आपका ही है ,ज़रूरी है खुद पर थोडा गुरूर होना //
कम सबब नही ,दीवानों की बेखुदी का हम भी ,
शुरू हो चुका आप पर भी मेरा अब सुरूर होना //

शख्सियत ही खोने लगी आपमे खोकर,,
गुमां हुआ अच्छा नही किसी मैं अपना वजूद खोना //
रखना पड़ता है ,अपने भी रुतबे का ख्याल,
नामंज़ूर है, सुकून-ए-दिल मैं बेआबरू होना//

लाज़मी  है , इस हकीक़त से रूबरू होना ,
अच्छा नहीं किसी के नशे मैं इस  क़दर चूर होना...................................
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परिस्तिश -पूजा करना ,किसी को बहुत मानना 
सुरूर -नशा 
मगरूर -घमंड .गुरूर -गर्व ,बेआबरू-बेईज्ज़त ,रुतबा- सम्मान ,सबब-कारण ,बेखुदी-होश खोना 
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