"गुप्त रत्न""ख़ामोशी की गहराई मैं"

इतना भी गुरुर किसलिए तुमको आखिर ,
धुआं,मिटटी और कफ़न हासिल आखिर //

जितने बार भी पलटकर पीछे देखा मैंने ,
नज़र आयी खुदगर्ज़ी, दगा  ही आखिर//

कितना पागल है ढूढ़ता है सारे जहाँ मैं
कस्तूरी सा,सुकून तेरे अंदर है आखिर//

तेरी दहलीज़ पर ही  छोड़ दिया सब
कहाँ तलाशूँ,खुशिया वही है आखिर //

मुकर्रर करें सजा,"रत्न" की औकात इतनी
दिया है काम,खुदा किसलिए है आखिर? //

जो दिए थे दर्द अब लौटना है मुझको ,
तेरे एहसान ये  कब तक रखूं  आखिर//

जुर्माना मुहब्बत का "रत्न" के हिस्से रहा,
शामिल कहाँ तू था?इस गुनाह मैं आखिर //

तेरे साथ जो गुज़री बस उतनी ही थी ,
ज़िंदगी का और मतलब क्या आखिर //

टिप्पणियाँ