"गुप्त रत्न "
" भावनाओं का समंदर "
तुम्हे मुझसे कभी मुहब्बत न रही।
जब भी रही जरूरत ही रही।
काश थोड़ी सी मुहब्बत हो जाती
पूरी नही हुयी कभी,आरज़ू ही रही।
अब नही दरमियान कुछ भी।
कसक अधूरी ये दिल मैं ही रही।
दिल और दिमाग की जंग मैं,
जीत हमेशा आपकी ही रही।
लड़ाई वो करो जिसमे हारो न कभी,
पर दिल था,इसलिये मैं हारी ही रही।
लहरो के पार मंज़िल थी मेरी,
पहुंची नही कश्ती, मझधार मैं रही।
तुम्हे मुझसे कभी मुहब्बत न रही।
जब भी रही जरूरत ही रही।
काश थोड़ी सी मुहब्बत हो जाती
पूरी नही हुयी कभी,आरज़ू ही रही।
अब नही दरमियान कुछ भी।
कसक अधूरी ये दिल मैं ही रही।
दिल और दिमाग की जंग मैं,
जीत हमेशा आपकी ही रही।
लड़ाई वो करो जिसमे हारो न कभी,
पर दिल था,इसलिये मैं हारी ही रही।
लहरो के पार मंज़िल थी मेरी,
पहुंची नही कश्ती, मझधार मैं रही।
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